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विरोधीयन के उहे हरा पावेला...

छोट छोट मौक़ा के भी ख़ुशी में तब्दील जे कर पावेला। सबका चेहरा प पुरकस मुस्कान उहे लेआ पावेला।। साँच के रहिया प निरंतर जे चलत रह पावेला। हक आ सम्मान ला अंत तक उहे लड़ पावेला।। दु...

माई जे जुड़ल एगो इयाद...

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जब हम 7-8 साल के होखेम त हमरा घरे कवनों काम होत रहे, जाना लो बॉस फारत रहे आ हम ओहिजा खेलत रही। बाबूजी के शख्त हिदायत रहे के हमरा दाब नईखे छुए के। तलही माई कवनों काम ला बाबूजी के बोल...

याद है हमे आज भी

याद है हमे आज भी वो बचपन में हमारा खेलना, मासूमियत से हर गम को झेलना, वो बात-बात पे चहकना, याद है हमे आज भी। आज भी खेलते है हम खेल, किसी के जज्बात से तो, किसी के अरमान से, किसी के उम्मीद से तो, किसी के विश्वास से। सलीके से पहुँचते है अंजाम तक, खुशियों से मुस्कुराना होता है, आज भी हर अंजाम के बाद। कभी शौक से पढ़त थे हम, आज प्रतिस्पर्धा में पढ़ते है हम, तब होता था टॉप करने का उन्माद, आज है दौर में बने रहने का प्रयास। वो बचपन की बारिश, स्कूल की छुटटी, होता था हर क्लास का इन्तेजार, बारिश में भी कर आते थे, कोचिंग की क्लास। आज भी होती है बारिश, उम्मीद और चिराग की, पलक-पावड़े बिछ जाते है, एक अदद छुटटी की आश में। उम्मीद जगा जाती है, कह जाती है बारिश, छोड़ आज की क्लास, फिर भी कर आते हर क्लास हैं। तब था दुनिया जितने का विश्वास, रोज जीता करते थे, सपनो के हजारों महल। आज भी है विश्वास, जीत लेंगे हर जंग, शायद इसिलए है आज भी, जिंदगी की असल जंग में विराजमान। याद है हमे आज भी। अनुराग रंजन छपरा(मशरख)

साहित्यिक यायावरी और भोजपुरी में रुचि रखते हैं तो यायावरी वाया भोजपुरी पर एक बार जरूर पहुँचे.... भोजपुरी का पहला स्टोरी टेल्लिंग एप यायवारी वाया भोजपुरी (first bhojpuri story telling app)

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निगाहें ढूंढती है गाँव के उन बाजारों को...

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निगाहें ढूंढती है गाँव के उन बाजारों को... गाँवो में बाजार लगाने की सालो पुरानी प्रथा अब विलुप्ति के कगार पर है। एक समय था जब प्रत्येक गाँव में निर्धारित दिन/तिथि को बाजार लगता था। कुछ समय पहले तक शहरों की तरह गावों में स्थाई दुकाने नही हुआ करती थी। कई घरो के चूल्हे इन बाजारों से होनी वाली आमदनी से जला करते थे। तब कम पूंजी वाले दुकानदार भी आसानी से अपनी चलती-फिरती दुकान लगाया करते थे। उन्हें इन दुकानो को लगानें के एवज में जमीन मालिक को या तो मामूली रकम अदा करनी होती थी या फिर उसके बदले में समान दे दिया करते थे। कई दफा तो दरियादिली में लोग उन्हें मुफ़्त में ही दुकान लगाने दिया करते थे। अब बाजार के उन छोटे दुकानों की जगह स्थाई दुकाने लगती है। हजारों की रकम उसके एवज में जमा की जाती है। नतीजतन स्वतः ही समानो के दाम बढ़ जाते है। हाँ ये सच है कि अब जब जरूरत होती है,हमे पसंद या जरूरत की वस्तुएं उसी वक्त मिल जाती है। परन्तु इस बाजारवाद के नए स्वरूप ने सैकड़ो छोटे दुकानदारो को उनके पारम्परिक पेशे से जुदा भी तो किया है। तब लोग मिल-बाटकर अपनी जरूरते पूरी कर लेते थे। लोग समूहों में बाजार जाते थ...