Sunday 30 April 2023

याद है हमे आज भी

याद है हमे आज भी

वो बचपन में हमारा खेलना,
मासूमियत से हर गम को झेलना,
वो बात-बात पे चहकना,
याद है हमे आज भी।
आज भी खेलते है हम खेल,
किसी के जज्बात से तो,
किसी के अरमान से,
किसी के उम्मीद से तो,
किसी के विश्वास से।
सलीके से पहुँचते है अंजाम तक,
खुशियों से मुस्कुराना होता है,
आज भी हर अंजाम के बाद।
कभी शौक से पढ़त थे हम,
आज प्रतिस्पर्धा में पढ़ते है हम,
तब होता था टॉप करने का उन्माद,
आज है दौर में बने रहने का प्रयास।
वो बचपन की बारिश,
स्कूल की छुटटी,
होता था हर क्लास का इन्तेजार,
बारिश में भी कर आते थे,
कोचिंग की क्लास।
आज भी होती है बारिश,
उम्मीद और चिराग की,
पलक-पावड़े बिछ जाते है,
एक अदद छुटटी की आश में।
उम्मीद जगा जाती है,
कह जाती है बारिश,
छोड़ आज की क्लास,
फिर भी कर आते हर क्लास हैं।
तब था दुनिया जितने का विश्वास,
रोज जीता करते थे,
सपनो के हजारों महल।
आज भी है विश्वास,
जीत लेंगे हर जंग,
शायद इसिलए है आज भी,
जिंदगी की असल जंग में विराजमान।
याद है हमे आज भी।

अनुराग रंजन

छपरा(मशरख)


Tuesday 11 April 2023

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Tuesday 4 April 2023

निगाहें ढूंढती है गाँव के उन बाजारों को...

निगाहें ढूंढती है गाँव के उन बाजारों को...

गाँवो में बाजार लगाने की सालो पुरानी प्रथा अब विलुप्ति के कगार पर है। एक समय था जब प्रत्येक गाँव में निर्धारित दिन/तिथि को बाजार लगता था। कुछ समय पहले तक शहरों की तरह गावों में स्थाई दुकाने नही हुआ करती थी। कई घरो के चूल्हे इन बाजारों से होनी वाली आमदनी से जला करते थे। तब कम पूंजी वाले दुकानदार भी आसानी से अपनी चलती-फिरती दुकान लगाया करते थे। उन्हें इन दुकानो को लगानें के एवज में जमीन मालिक को या तो मामूली रकम अदा करनी होती थी या फिर उसके बदले में समान दे दिया करते थे। कई दफा तो दरियादिली में लोग उन्हें मुफ़्त में ही दुकान लगाने दिया करते थे।
अब बाजार के उन छोटे दुकानों की जगह स्थाई दुकाने लगती है। हजारों की रकम उसके एवज में जमा की जाती है। नतीजतन स्वतः ही समानो के दाम बढ़ जाते है। हाँ ये सच है कि अब जब जरूरत होती है,हमे पसंद या जरूरत की वस्तुएं उसी वक्त मिल जाती है। परन्तु इस बाजारवाद के नए स्वरूप ने सैकड़ो छोटे दुकानदारो को उनके पारम्परिक पेशे से जुदा भी तो किया है।
तब लोग मिल-बाटकर अपनी जरूरते पूरी कर लेते थे। लोग समूहों में बाजार जाते थे,अत: गाँव-जवार के लोगों के मिलन का एक केंद्र होते थे ये बाजार। अब जिसे जिस की जरूरत है वह उसी वक्त खरीद लाता है। पहले लोग एक दूसर से मांगकर अपनी जरूरते पूरी किया करते थे जिससे आपसी प्रेम और सोहार्द बना रहता था। अब वो भाईचारा भी खात्मे की ओर है....
अपने विचार दे।

अनुराग रंजन
छपरा(मशरख)